14 सितम्बर को हिंदी दिवस मनाते हुए हमें पचास साल
से अधिक समय हो गया। इतने सालों में बस
एक ही काम हुआ हैं। बडे-बडे मंचों पर
बडे-बडे कवि, लेखक,साहित्यकार या तो हिंदी की उपलब्धिया गिनाते फूले नहीं समाते।
या फिर अग्रेजी के बडते कद को लेकर लालत-मलालत कर रहें होते हैं। लेकिन इस सब से
परे एक नई सोच को समाज में विस्तार देने का काम किया जा रहा हैं। जाने माने कवि
कुमार विश्वाश ने कई बार मंच पर यह कहते सुने गए ``हिंदी
का सबसे बडा नुकसान उन्होंने कर दिया जिन्होंने कठिन हिंदी लिखी।`` यह सिर्फ किसी व्यक्ति विषेश की सोच नहीं हैं।
इसका पालनकर्ता साहित्य समाज का एक बडा तबक़ा हैं। जो दबी ज़वान में इसका समर्थन
अवश्य कर रहा हैं। हिंदी को अगर ख़तरा हैं तो इस फैलती हुई सोच से हैं। यह तर्क
मेरे जैसे समान्य बुध्दि रखने वाले प्राणी की समझ से परे हैं। क्योंकि क्या अब
हमें अपनी ही मातृभाषा में सरल और कठिन के नए मापदंड स्थापित करने होगे? क्या माँ भी सरल और कठिन होती हैं? इसका अर्थ यह ही हुआ की अब हमें हिंदी के
शब्दकोश से उन सभी शब्दों को बहार का रास्ता दिखा देना चाहिए जो कठिन हैं और चलन
से बहार हो गए हैं। एक समृध्द शब्दकोश को दयनियता की अंधी भट्टी में झोक दे। जहाँ
वह अन्य भाषाओं के बोल चाल के शब्दों को ग्रहण कर असुध्दियों की गर्क में समा जाए।
जैसा की आज हो रहा हैं। कवि व लेखक सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए बोल चाल के
समान्य शब्दों के अलवा अग्रेजी के शब्दों का प्रयोग करने में भी संकोच नहीं कर
रहें हैं। इसके बजाय एक अच्छी स्थति यह हो सकती हैं। हम नए शब्दों सृजन कर शब्दकोश
का विकास करें। जो शब्द चलन से बहार हो गए हैं, उन्हें साहित्य के माध्यम से मुख्य
धारा से जोडने का प्रयास करें।
हिंदी का विकास जब तक नहीं हो सकता। जब तक हम एक
मत होकर यह स्वीकार न कर ले कि आज हिंदी अपने ही घर में असुरक्षित महसूस कर रही
हैं। जब से तरूणों के हाथों में मोबाईल कम्पूटर आया हैं, वह हिंदी से और दूर हो
गया हैं। जहां पहले वह पत्रों के माध्यम से हिंदी में पत्र व्यवहार करता था। आज
अग्रेजी में मेल कर रहा हैं। हिंदी के शब्दों को भी अग्रेजी में लिख रहा हैं। जबकि
कम्प्यूटर व मोबाईल में हिंदी लिखने की सूविधा मौजूद हैं। हिन्दुस्तान का तरूण
अग्रेजी का हस्ताक्षर बन कर रह गया हैं।
एक बार संसद में चर्चा के दौरान किसी विषय पर
अपने विचार व्यक्त करते हुए। गृह मंत्री पी चिदंबरम जी ने कहा था कि `` मैं अपनी बात अग्रेजी में इतनी अच्छी तरह से नहीं
कह सकता जितनी मेरे मित्रों ने इस विषय पर हिंदी में कहीं `` इस बात से प्रमाणित हो जाता हैं। टुटी-फुटी
अग्रेजी भाषा के आवरण में लपेट कर हम खुद को कितना भी अग्रेजपरस्त दिखाना चाहें।
लेकिन आज भी हमारे ह्रदय में हिंदी ही निवास करती हैं। जनमान्यों की भाषा भले ही न
हो, पर जन-जन की भाषा आज भी हिंदी ही हैं।
तरूण कुमार, सावन
हिन्दी मेरी पहचान
जवाब देंहटाएंसही कहा आपने
हिंदी हम सब की पहचान है। ।