मांग का सिंदूर
हाथों में मेहंदी का चलन नहीं बदला ।
मां का ममतामई आंचल
दूध का रंग नहीं बदला ।
बहन का प्यार वो
राखी का बंधन नहीं बदला ।
बेटियां आँगन का फूल
बाप के कंधों का बोझ नहीं बदला ।
घर के
चिरागों की खातिर अजन्माओं की हत्या का
सिलसिला
नहीं बदला ।
व्रत रखें कोई
सावित्री, सीता की अग्निपरीक्षा का
मंज़र
नहीं बदला ।
सदियां बदली हैं, जमाना
बदला हैं, यूं तो औरत का
रूप-रंग कम नहीं
बदला ।
मगर औरत की आंखों से
अश्कों का रिश्ता नहीं बदला ।
बदलने को तो देश का
भेष कम नहीं बदला ।
तरूण कुमार, सावन
मगर औरत की आंखों से अश्कों का रिस्ता नहीं बदला ।
जवाब देंहटाएंबदलने को तो देश का भेष कम नहीं बदला ।
...सुन्दर रचना..
जो बदलना है। I नहीं बदला हालाँकि बहुत कुछ बदल गया ... अच्छी रचना ...
जवाब देंहटाएंबहुत कुछ बदल गया
जवाब देंहटाएंखूबसूरत रचना
जवाब देंहटाएंखूबसूरत रचना
जवाब देंहटाएंवाह!
जवाब देंहटाएंwah !bahut sacchi baat likhi apne....sundar rachna
जवाब देंहटाएंबढ़िया कविता है जी। बधाई।
जवाब देंहटाएंसुंदर कहा है ।
जवाब देंहटाएंवाह!!
जवाब देंहटाएं'देश का भेष' कविता अच्छी है. पर आपके बिना मांगे हुए कुछ सलाह दे रहा हूँ - 'आगन' की जगह 'आँगन','मंजर' की जगह 'मंज़र' और 'रिस्ता' की जगह 'रिश्ता' कर दीजिए. भाषा की अशुद्धियाँ कविता का सौन्दर्य कम कर देती हैं.
जवाब देंहटाएंसहमत हूँ
हटाएंसादर
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 21 जनवरी 2017 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
बहुत-बहुत ..........आभार
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