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बुधवार, 21 अक्तूबर 2015

लघु-कथा - मजबूरी या समझदारी


शर्मा जी ने जब अपने बेटे राजेश से अपने खर्चे के सिए कुछ पैसे मांगे, तो राजेश नाक-भौं सिकोड़ने हुए बोला, पिताजी आपका क्या हैं? आप तो दिन भर घर में रहते हैं। आपको पता भी है कि महंगाई किस क़दर बढ़ चुकी हैं। अब तो घर खर्च के लिए मेरी तनख्वाह भी कम पड़ने लगी हैं।
ऐसे में मैं आप पर ज्यादा पैसे खर्च करने में समर्थ नहीं हूँ। मुझे अपने परिवार के भविष्य के बारे में भी तो सोचना हैं।
मिस्टर शर्मा यह सुनते ही सकते में आ गए। वह बोले, बेटा, मैंने भी अपने परिवार का ध्यान रखा हैं, पर अपने माँ-बाप को तो नहीं भूल गया।राजेश लगभग चीखते हुए बोला, मैं नहीं जानता यह सब। आपको यह गवारा न हो, तो आप जहाँ चाहे, जा सकते हैं।अब तो शर्मा जी का पारा सातवें आसमान पर था। तुरन्त तय कर लिया कि अब बेटे के साथ नहीं रहना हैं। अपमानित होकर यहाँ रहने से तो अच्छा है, कि कहीं और जाकर रहें। घर से बाहर निकलते ही सोचने लगे कि कहाँ जाएँ।
तभी पीछे से बचपन के मित्र वर्मा जी आ गए। और बोले कहाँ चले?” शर्मा जी ने एक ही सांस में सारी कहानी उन्हें सुना ड़ाली। वर्मा जी ने ठंड़ी सांस छोड़ते हुए कहाँ, शर्मा मेरे दोस्त, तुम्हें घर छोड़कर नहीं आना चाहिए था। आखिर उम्र के इस पड़ाव पर हमें किसी न किसी सहारा चाहिए। वह सहारा बच्चों से ही मिल सकता हैं। और फ़िर सोचो कि घऱ छोड़कर कहाँ जाओगे। सड़क पर ठोकर खाने से अच्छा हैं, घर लोट जाओं, इसी में समझदारी हैं।दोस्त की सलाह मानी और बुदबुदाते हुए बढ़ने लगे कि यह समझदारी नहीं, एक बूढ़े बाप की मजबूरी हैं।
                    



 
समाचार-पत्र अमर उजाला कॉम्पैक्ट में शुक्रवार 9दिसंबर 2011में प्रकाशित