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सोमवार, 31 अक्तूबर 2016

कविता- देश का भेष



बदलने को तो देश का भेष कम नहीं बदला ।
मांग का सिंदूर हाथों में मेहंदी का चलन नहीं बदला ।
मां का ममतामई आंचल दध का रंग नहीं बदला ।
बहन का प्यार वो राखी का बंधन नहीं बदला ।
बेटियां आँगन का फूल बाप के कंधों का बोझ नहीं बदला ।
 घर के चिरागों की खातिर अजन्माओं की हत्या का
 सिलसिला नहीं बदला ।
व्रत रखें कोई सावित्री, सीता की अग्निपरीक्षा का
 मंज़र नहीं बदला ।
सदियां बदली हैं, जमाना बदला हैं, यूं तो औरत का
रूप-रंग कम नहीं बदला ।
मगर औरत की आंखों से अश्कों का रिश्ता नहीं बदला ।
बदलने को तो देश का भेष कम नहीं बदला ।
                तरूण कुमार, सावन

14 टिप्‍पणियां:

  1. मगर औरत की आंखों से अश्कों का रिस्ता नहीं बदला ।
    बदलने को तो देश का भेष कम नहीं बदला ।
    ...सुन्दर रचना..

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  2. जो बदलना है। I नहीं बदला हालाँकि बहुत कुछ बदल गया ... अच्छी रचना ...

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  3. बढ़िया कविता है जी। बधाई।

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  4. 'देश का भेष' कविता अच्छी है. पर आपके बिना मांगे हुए कुछ सलाह दे रहा हूँ - 'आगन' की जगह 'आँगन','मंजर' की जगह 'मंज़र' और 'रिस्ता' की जगह 'रिश्ता' कर दीजिए. भाषा की अशुद्धियाँ कविता का सौन्दर्य कम कर देती हैं.

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  5. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 21 जनवरी 2017 को लिंक की जाएगी ....
    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

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