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मंगलवार, 23 दिसंबर 2014

नारी का सशक्तीकरण


सुप्रीम कोर्ट ने शरई अदालतों की वैधता को भले ही नक़ार दिया हो,लेकिन एक दौर में इन अदालतों के फैसले पूरे देश में माने जाते थे।नाफ़रमानी करने वालों को सज़ा-ए-मौत तक दी जाती थी।मुगल काल में आगरा की शरई आदलते  पूरी सल्तनत के लिए फ़ैसला सुनाती थी,लेकिन हालात अब भी ख़ास नहीं बदले हैं।कम से कम औरतों के लिए तो बदले ही नहीं हैं,जब भी म़र्द को लगता हैं कि क़ानूनी अदालतों में वह औरत को उसके हक़ से वंचित नहीं कर पाएगा तो वो शरीयत अदलतों ख़ाप पंचायतों की गोद में जाकर मन माफिक़ फल प्राप्त कर लेता हैं।और औरत को उसकी औक़ात बता देता हैं।
  तलाक सिर्फ आदमी का हक़ नहीं हो सकता क्योंकि इसके साथ जुडां हैं एक औरत और उसके बच्चों का भविष्य । साल 2011 में ही मुसलिम समाज में लगातार एक तरफा तलाक के तीन मामलें सामने आएं थे । जिसमें पत्नी को बताएं बिना तलाक को मनजुरी प्रदान की फ़तवा जारी करने वाले दारूल उलूम देवबंद सहाब ने । पुरूष प्रधान समाज में धर्म के नाम पर नारी के दर्द की कहानी कोई नई नहीं हैं । मजहब के नाम पर जहां मुसलिम समाज में तलाक,हलाला और इददत जैसी कुप्रथा और मोलानाओं के बेतुके फतवे है। तो वही हिन्दु समाज में पर्दा प्रथा, बाल विवाह जैसी परम्परावादी सोच व खाप पंचायते हैं जो नारी के लिए तालिवानी फरमान जारी करती रहती हैं । इन कुरीतियों को ढोने के लिए आज भी मजबूर किया जाता हैं औरत को । आदमी सारे धर्म-मजहबों में खुद को सुरक्षित रख कर महिलाओं को बलि का बकरा बनाता चला आ रहा हैं ।


यहाँ अदालत ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश की इमराना पर दिए उस फ़तवे का जिक़्र करते हुए उसे क्रूर अंयायपूर्ण और मानवता को कलंकित करने वाला बताया।जिसके  तहत उसे अपने पति से अलग करके उसके बलात्कारी ससुर के पास रहने को कहा गया था।इसके साथ ही निजी क़ानून और संविधान पीठों के विवाद के साथ प्रधानमंत्री राजीव गांधी के कार्यकाल का शाहबानों मुकदमा और उससे उठे विवाद और सवाल स्मृति ताजा हो जाती हैं।जो आज तक हमारा पीछा कर रहीं हैं।जहां मुठ्ठी भर लोगों के दवाब में आकर अदालत और सविधान को झुकना पड़ा था। उम्मीद हैं ऐसे हालात फिर पैदा नहीं होंगे।साफ हैं इन फ़तवों के फरमानों में औरत के आरमान ही हर बार जलें हैं।
  आखिर महिलाओं के साथ ये अन्याय क्यों ? क्योंकि आज तक औरत चुप रह कर सब कुछ सहती आ रही हैं । लेकिन 2012 में इस खामोशी को तोडतें हुए । भारतीय मुसलिम महिला आंदोलन के बैनर तले एक तरफा तलाक,हलाला और इददत जैसी कुप्रथाओं के खिलाफ आवाज बुंलद की थी ।
  इसकी गुज सुनाई पडी 21 सितंबर 2012 लखनऊ में (दीन की बेटियां मांग रही इंसाफ ) विषय पर आयोजित काँन्फ्रेंस में । जिसे मुसलिम महिला आंदोलन और राष्ट्रीय महिला आयोग व्दारा संयुक्त रूप से आयोजित किया गया था । मुसलिम मंहिलाएं और बेटियां ही अब अपने खिलाफ जारी बेतुके फतवों का विरोध करेगी । देवबंदी फतवों पंचायती फरमानों और आँल इंडियां मुसलिम पर्सनल लाँ बोर्ड की महिलाओं के खिलाफ जबरन किए गएं फैसलों की मुखालफत की जाएंगी । एक तरफा तलाक और हलाला को पूरी तरह बंद करने की पैरवी की जाएंगी । ये निष्कर्ष निकल कर सामने आएं थे । यह इक्कीसवी सदी की आधुनिक नारी हैं । जो अपने हक की लडाई लडना जानती हैं । मलाला और दामनी के लिए सघर्ष इसी जंग का एक हिस्सा थें। जिसमें महिलाओं और लड़कियों ने अपनी शक्ती का प्रदर्शन कर पुरूष प्रधान समाज को चेतावनी दी के वह औरत को कमजोर समझने की भूल कदा भी न करे ।यह नारी सशक्तीकरण का दौर हैं ।
 वैसे भी हमने किसी धर्म प्रधान देश का निर्माण न कर सविंधान प्रधान देश का निर्माण किया हैं । जहां एक तरफ हमारे देश में सभी को मजहबी आजादी हैं तो वही दूसरी और कानून सब के लिए बराबर हैं । आदमी और औरत को समान अधिकार प्रदान किए गएं हैं । अगर महिलाएं कानून का दरवाजा खटखटाती हैं तो उन्हें इंसाफ अवश्य मिलेगा । मौलानाओं,खाप पचायतों के व्दारा धर्म बताकर उनकें ऊपर हो रहें जुल्म का अंत अवश्य होगा । जहां एक और नारी सशक्तीकरण की और बड रही हैं । वही सरकार ने भी पिछले कुछ सालों में महिलाओं के हितों को ध्यान में रखते हुएं कानून में संशोधन कर नारी को अवला से सवला बनाने के प्रयास तेज कर दिए हैं ।

                          

तरूण कुमार,सावन
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6 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 25-12-2014 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1838 में दिया गया है
    धन्यवाद

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  2. चर्चा मंच पर जगह देने के लिए ----- आभार

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  3. कानून सभी के लिए एक समान होना ही चाहिए...

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  4. आपको सपरिवार नव वर्ष की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ .....!!

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  5. सार्थक post :)
    --------- http://drpratibhasowaty.blogspot.in/2014/12/6.html ( link 4 ur visit )

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  6. अच्‍छा आर्टिकल। http://natkhatkahani.blogspot.com

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