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रविवार, 2 नवंबर 2014

शेर के आगे पर मेमने का हाल


नलकु की टुटी-फुटी छत।
रातों की मुसलाधार बरसात।
आँधियों का चहुँ और शोर था
बहार की तरह अंदर भी अंधेरा घनघोर था।
बिजली की दहाड़ के आगें वो लचार था।
जैसे शेर के आगे पर मेमने का हाल 
कापता घर का पोर-पोर था।   
जैसे बुडें आदमी का नहीं बुड़ापे पर कोई जोर था।
गिरने को आतुर दरवाजा बहुत कमजोर था।
जैसे कोई टीबी का मरीज था।
बूँद-बूँद पानी का रिसाब
जैसे खुला हुआ कोई घाओं।
पिड़ा असहनसिलता के पडाव पर
स्थिर होकर भी दौडते थे पाओं।
सपने धीरे-धीरे टुट रहें हैं।
अरमान तिनका-तिनका बिखर रहें हैं।
खडें हुए, मगर मरे हुए मकान के साथ
वह पल-पल मर रहा हैं।
जहाँ जिंदा इंसान सुविधाओं के बोछ तलें मर गया हैं।
वही गरीब नलकु मरते हुए मकान के साथ
जिनें की कोशिश कर रहा हैं ।
 तरूण कुमार,सावन

1 टिप्पणी:

  1. गरीब जीने की 'कोशिश' करते हैं और जिंदगी से असली संघर्ष तो वो ही करते हैं
    वास्तविकता के करीब की रचना ....

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